
चंडीगढ़। पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने एक बड़ा और स्पष्ट कानूनी निर्णय सुनाते हुए कहा है कि वर्ष 1956 के बाद पिता को जो संपत्ति विरासत में मिली है, उसे पैतृक संपत्ति नहीं माना जाएगा। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसी संपत्ति को पिता अपनी इच्छा अनुसार किसी को भी बेच या ट्रांसफर कर सकते हैं और इस पर बच्चों का स्वाभाविक अधिकार नहीं बनता।
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क्या होगा अब असर?
इस फैसले के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि 1956 के बाद परिवार की अगली पीढ़ी को स्वतः ही संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलेगा, जब तक कि पिता स्वयं उसे साझा करने का निर्णय न लें। यानी यदि किसी पिता को दादा या परदादा से मिली संपत्ति तब हस्तांतरित हुई है जब हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act, 1956) प्रभाव में आ चुका था, तो वह स्व-अर्जित संपत्ति (self-acquired property) मानी जाएगी।
अदालत का तर्क
न्यायमूर्ति वीरेंद्र अग्रवाल की अदालत ने कहा कि 1956 में लागू हुए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के बाद ‘पैतृक’ संपत्ति की कानूनी परिभाषा पहले जैसी नहीं रही। अब ऐसी संपत्ति जो पिता को उनके पूर्वजों से 1956 के बाद उत्तराधिकार या विभाजन के माध्यम से मिली हो — उस पर पिता का पूर्ण अधिकार होगा। बच्चे उस संपत्ति के संबंध में कोई कानूनी चुनौती नहीं दे सकते।
मामला क्या था?
यह फैसला 1994 में दाखिल की गई एक नियमित द्वितीय अपील (RSA) पर सुनाया गया, जिसमें बेटों ने अपने पिता द्वारा की गई संपत्ति के बंटवारे को चुनौती दी थी। अदालत ने सुनवाई के बाद साफ कहा कि चूंकि संबंधित संपत्ति पिता को 1956 के बाद विरासत में मिली थी, इसलिए वह उनकी स्व-अर्जित मानी जाएगी और उन्हें इसे किसी को भी देने का अधिकार है।
क्यों महत्वपूर्ण है यह फैसला?
यह निर्णय न केवल हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों के लिए बल्कि पूरे देश के लिए दिशा तय कर सकता है।
कई परिवारों में पैतृक संपत्ति को लेकर विवाद लंबे समय तक चलते रहते हैं।
अदालत के इस स्पष्टीकरण से अब ऐसे मामलों में कानूनी स्थिति काफी हद तक साफ हो गई है जो संपत्ति 1956 से पूर्व मिली, वही पैतृक मानी जाएगी, बाकी सब पर प्राप्तकर्ता का व्यक्तिगत स्वामित्व रहेगा।

















