
सोशल मीडिया पर ये दिनों एक ऐसा दावा तेजी से वायरल हो रहा है जो हर किसी के होश उड़ा देता है। बात हो रही है म्यांमार के एक हिस्से ‘जोलैंड’ के, जिसे भारत में मिलाकर नया राज्य बनाने की। लेकिन क्या ये सिर्फ अफवाह है या इसमें सच्चाई छिपी है? चलिए इसकी गहराई में उतरते हैं।
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दावे की शुरुआत कहां से हुई
ये सारी हलचल एक राज्यसभा सांसद की म्यांमार के विद्रोही ग्रुप ‘चिनलैंड काउंसिल’ के साथ बातचीत से शुरू हुई। मिजोरम के सांसद ने चिन लोगों को भारत में शामिल होने का अनौपचारिक न्योता दिया था। लोग इसे ऐतिहासिक तर्कों से जोड़ रहे हैं – जैसे 1937 से पहले बर्मा ब्रिटिश भारत का हिस्सा था। म्यांमार का तख्तापलट और गृहयुद्ध देखकर लगता है जैसे वहां की जनता स्थिरता की तलाश में भारत की ओर रुख कर रही हो।
भारत को क्या फायदा हो सकता है?
समर्थक कहते हैं ये कदम भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी को सुपरचार्ज कर देगा। चीन की स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स रणनीति को धक्का लगेगा और बंगाल की खाड़ी से दक्षिण-पूर्व एशिया तक जमीन का रास्ता खुल जाएगा। म्यांमार के तेल, गैस, कीमती पत्थर और दुर्लभ मिट्टी के तत्व भारत की ऊर्जा सुरक्षा को मजबूत करेंगे। सोचिए, पूर्वोत्तर राज्यों के लिए कितना बड़ा रणनीतिक फायदा!
हकीकत क्या कहती है
लेकिन सरकारी स्तर पर ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं भेजा गया। विदेश या गृह मंत्रालय की ओर से चुप्पी ही है। उल्टा भारत म्यांमार सीमा पर सख्ती बढ़ा रहा है। फ्री मूवमेंट रिजीम खत्म हो गया और 398 किमी लंबी मणिपुर-म्यांमार बॉर्डर पर बाड़बंदी चल रही है। ये कदम विलय की बजाय सुरक्षा पर फोकस दिखाते हैं।
क्यों मुश्किल है ये विलय
अंतरराष्ट्रीय कानून किसी दूसरे देश के टुकड़े करने की इजाजत नहीं देता। चीन का म्यांमार में गहरा निवेश है, कोई कदम उसके साथ टकराव पैदा करेगा। गृहयुद्ध को सीमा पार लाना पूर्वोत्तर की शांति बिगाड़ सकता है। मिजो और चिन समुदायों के सांस्कृतिक रिश्ते तो हैं, लेकिन भू-राजनीतिक कल्पना से आगे बढ़ना आसान नहीं।
अंत में सच्चाई
चिन और मिजो लोगों के बीच रक्त-संबंध गहरे हैं, लेकिन जोलैंड को भारत का राज्य बनाने का सपना फिलहाल सिर्फ सोशल मीडिया की अफवाह लगता है। भारत का फोकस सीमा सुरक्षा और पड़ोसी के साथ स्थिर संबंधों पर है। अगर ऐसा होता तो ये इतिहास रच देता, लेकिन अभी तो ये सिर्फ चर्चा का विषय है। समय बताएगा आगे क्या होता है।

















